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विचार: अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर व्यक्त सिद्धांतों को घरेलू स्तर पर भी अमल में लाए भारत

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भारत ने, जलवायु परिवर्तन को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र में शामिल करने वाले प्रस्ताव के खिलाफ वोट डाला। इसके पीछे उसका तर्क है कि यह कदम, गरीब देशों को वार्ता से बाहर कर सकता है। लेकिन भारत को घरेलू स्तर पर भी ऐसे सिद्धांतों को अमल में लाना चाहिए।
 

साल 2020 में आए अम्फान तूफान के कारण इस महिला को अपने परिवार के साथ अस्थायी आश्रय में रहना पड़ रहा है। यह प्रशंसनीय है कि भारत ने जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अन्य देशों के नागरिकों की सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता प्रकट की, लेकिन अपने देश में जलवायु आपदाओं की वजह से विस्थापितों की सुरक्षा को वह नजरंदाज करता है। (Image: Alamy)[/caption]

जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र में शामिल करने वाले पहले मसौदा प्रस्ताव पर 13 दिसंबर को रूस द्वारा वीटो कर दिया गया। इस प्रस्ताव में, संघर्ष प्रबंधन और बचाव पर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की रणनीतियों में “जलवायु परिवर्तन के सुरक्षा निहितार्थों से संबंधित सूचनाओं को शामिल करने” का आह्वान किया गया था। वैसे तो, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे का वर्षों से उल्लेख करता है लेकिन उसके पास जलवायु परिवर्तन के विषय को अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर उल्लेख करने का औपचारिक अधिकार प्राप्त नहीं है। इस प्रस्ताव को 113 देशों का समर्थन मिला, जो इस स्थिति को बदल सकते हैं। इस प्रस्ताव का विरोध करने वाला रूस, अकेला देश नहीं था। भारत, जो कि वर्तमान में 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 10 अस्थायी सदस्यों (जो वीटो पावर का प्रयोग नहीं कर सकते) में से एक है, ने भी प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया। अपने भाषण में निर्णय की व्याख्या करते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी. एस. तिरुमूर्ति ने स्पष्ट किया कि यह कदम, विकासशील देशों और पूरी दुनिया के हितों के लिए कितना हानिकारक होगा।

भारत ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जलवायु परिवर्तन को शामिल करने का अधिकार ज्यादातर विकासशील देशों को वार्ता से बाहर कर सकता है।

इस प्रस्ताव के विरोध में दिया गया उनका भाषण, अच्छी तरह से व्यक्त सिद्धांतों और एक देश के कथनी और करनी में अंतर, दोनों के संदर्भ में रहा, जो घरेलू स्तर पर उन सिद्धांतों की उपेक्षा करता है, जिसका वह, जलवायु परिवर्तन के मुद्दों के सफल प्रबंधन के लिए आवश्यक होने का सुझाव देता है।

जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रखने के खतरे
भारत का तर्क सरल है: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उन देशों का वर्चस्व है जो कार्बन उत्सर्जन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं और ऐतिहासिक रूप से यह जिम्मेदारी वहन करते हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र के भीतर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को शामिल करने से अधिकांश विकासशील देशों को समस्या का खामियाजा भुगतने के बावजूद चर्चा से बाहर कर दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त, विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों का समर्थन करने के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में अपने पैर खींच लिए हैं। हाल ही में 2020 से 2023 तक विकासशील देशों को सालाना 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने के वादे की समय सीमा को आगे बढ़ाया गया है।

तिरुमूर्ति ने उल्लेख नहीं किया है, लेकिन संभावित रूप से अधिक महत्व की बात यह है कि जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र में ले जाने से जलवायु शरणार्थियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है। यूरोपीय देशों ने बड़े पैमाने पर अफ्रीका से शरणार्थी संकट को सुरक्षा से जुड़े एक मुद्दे के रूप में निपटाया है। इसमें इस तथ्य की अनदेखी की गई कि जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली निरंतर आपदाओं के प्रभाव के कारण कई लोगों को मजबूरन अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ रहा है। समस्या के इस समाधान ने बड़े पैमाने पर मानवीय त्रासदी को जन्म दिया है। जलवायु प्रभावों के अनुकूलन के बजाय, सुरक्षा पर ध्यान – मुद्दे का अंतिम बिंदु – हमारे सामने आने वाले संकटों के शांतिपूर्ण और सम्मानजनक प्रबंधन के लिए बहुत कम आशा प्रदान करता है और यह आगे भी जारी रहेगा।
संयुक्त राष्ट्र में, भारतीय रुख, एक ऐसी समस्या से निपटने के प्रयासों के खतरनाक और संकीर्ण तरीके को स्पष्ट तौर पर अस्वीकार करता है, जिसमें हर देश के हित जुड़े हुए हैं। तिरुमूर्ति के भाषण ने मौलिक सिद्धांतों के रूप में एकजुटता, समानता और समावेश को भी उजागर किया। बार-बार अफ्रीकी देशों की भूमिका और साहेल में चुनौतियों पर प्रकाश डाला।

कॉप26 में ब्राजील के युवा जलवायु कार्यकर्ता इस्विलाइन डा सिल्वा कॉन्सेइकाओ (बाएं) और जसियारा बीट्रिज़ सूसा डी वास्कोनसेलोस (तस्वीर: दिशा शेट्टी)[/caption]

यही कारण है कि गरीब देशों द्वारा जलवायु कूटनीति को कभी भी “उबाऊ, अर्थहीन इत्यादि” के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता है, जैसा कि ग्रेटा थनबर्ग ने कॉप26 के बारे में कहा। अकसर, कॉप26 जैसी बैठकों से, ऐसे देशों के पास, कूटनीति के लिए अवसर ही, एकमात्र उपकरण होता है, जिससे वे अमीर और अधिक शक्तिशाली देशों के साथ समानता का दावा कर सकते हैं। और ऐसे मौकों पर ही ये देश अपने लोगों के लिए जीवन और मृत्यु के फैसले में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

कॉप26 में, कई युवा जलवायु कार्यकर्ता हालांकि बहुत उत्साहजनक नतीजे न निकलने की आशंका से घिरे रहे, लेकिन वे बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोटली जैसे विकासशील देशों के नेताओं के भाषणों से प्रभावित रहे। विकासशील देश, वातावरण में विशाल मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों को फैलाने के जिम्मेदार, प्रमुख कर्ता-धर्ताओं को दंडित करने की स्थिति में नहीं हैं। वे वादों को तोड़ने के लिए विकसित देशों पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते और न ही वे धन रोकने की धमकी दे सकते हैं। लेकिन वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकते हैं। इसे “उबाऊ, अर्थहीन इत्यादि” के रूप में खारिज करना, कमजोर देशों की तरफ से उठ रही न्याय की मांग को लेकर, शक्तिशाली देशों की तरफ से इस मुद्दे को खींचते रहने की रणनीति को स्वीकार करना है।

कथनी और करनी में अंतर
सभी ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारतीय प्रतिनिधि का भाषण भी अर्धसत्य और असत्य से भरा हुआ था। भाषण की शुरुआत में उन्होंने कहा कि जब जलवायु कार्रवाई और जलवायु न्याय की बात आती है तो भारत सरकार “किसी से पीछे नहीं” रही है। यह तब है जब लगभग सात वर्षों में प्रधानमंत्री की जलवायु परिवर्तन परिषद की बैठक भी नहीं हुई है।

भारत, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो कहता है, घरेलू स्तर पर ठीक उसके विपरीत करता है।
जलवायु परिवर्तन को सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र में न ले जाने की अपनी सभी बातों के बावजूद, भारत सरकार ने बार-बार सुरक्षा मुद्दों का इस्तेमाल अपने स्वयं के पर्यावरणीय दायित्वों को कम करने के बहाने के रूप में किया है। भारतीय सेना ने हाल ही में अदालत में कहा था कि उसे “सुरक्षा चिंताओं” के कारण पर्यावरणीय प्रभाव के बावजूद नाजुक हिमालय में व्यापक राजमार्गों की आवश्यकता है। जम्मू और कश्मीर में 2019 से 250 हेक्टेयर से अधिक भूमि सुरक्षा बलों को सौंपी जा चुकी है। और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि, साहेल- एक क्षेत्र जो जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित है – का उल्लेख करते हुए खुश हैं। लेकिन उन्होंने इस बात की अनदेखी की कि उनकी अपनी सरकार ने असम में जलवायु शरणार्थियों की नागरिकता के मुद्दे पर क्या किया। जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अफ्रीकी नागरिकों की सुरक्षा के लिए भारत की चिंता प्रशंसनीय है लेकिन यह अजीब है वह खुद जलवायु आपदाओं से अपने ही विस्थापितों की सुरक्षा की उपेक्षा- यहां तक कि नुकसान पहुंचा रहा है- कर रहा है।

यह देखते हुए कि स्थानीय समुदाय, जलवायु के दृष्टिकोण से, भूमि का देखभाल करने के मामले में सर्वश्रेष्ठ हैं – जैसा कि बार-बार प्रलेखित किया गया है – हाल के भारतीय इतिहास में जलवायु न्याय का सबसे बड़ा कार्य 2006 में पारित वन अधिकार अधिनियम था। औपनिवेशिक शासन में इन समुदायों को स्वामित्व अधिकारों से बाहर रखा गया। इन समुदायों को जंगलों के लिहाज से कभी अपना नहीं माना गया क्योंकि स्वतंत्रता के बाद भी भारत के कानून, औपनिवेशिक सिद्धांतों वाले ही बरकरार रहे। ये कानून जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले लोगों को वनों की देखभाल के विरोधी मानते रहे। वन अधिकार अधिनियम में, इस नुकसान की भरपाई करने के साथ-साथ बेहतर वन प्रबंधन प्रथाओं की अनुमति देने की क्षमता थी। दुर्भाग्य से, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और संस्थागत बाधाओं ने कार्यान्वयन की एक सामान्य विफलता को जन्म दिया है, जिससे भारत के स्थानीय समुदायों को अभी भी उन भूमि से काफी हद तक बाहर रखा गया है, जिन तक उनकी पहुंच होनी चाहिए थी। इस पर तब लोगों का ध्यान गया जब महामारी के दौरान, वनवासी समुदायों को वहां से बाहर करने के लिए लॉकडाउन नियमों का उपयोग किया गया था।

भारत के पारंपरिक वन-निवास समुदायों में 10 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। केवल 14 देशों की जनसंख्या इनकी संख्या से अधिक है, और फिर भी इन समुदायों का भारत की कूटनीति में प्रतिनिधित्व नहीं है। भारत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो प्रचार करता है, घरेलू स्तर पर, उसके ठीक विपरीत व्यवहार करता है। पर्यावरण की दृष्टि से खराब ‘विकास’ इसकी आबादी के एक छोटे से हिस्से को लाभान्वित करता है, जबकि इस तरह के ‘विकास’ का सबसे ज्यादा खामियाजा कमजोरों को उठाना पड़ता है।
वैसे, यह अकेले भारत का सच नहीं है। कुल मिलाकर, कई गरीब देशों द्वारा इस तरह लिये गये सार्वजनिक रुख को लेकर जलवायु कार्यकर्ताओं के बीच गहरी निराशा पैदा हुई है। इस तरह के कथनी और करनी में अंतर का जवाब, अंतरराष्ट्रीय वार्ता में गरीब देशों के समानता के अधिकार को खारिज करना नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली आपदाओं के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील गरीब समुदायों को अधिक प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता है।

आर्कटिक परिषद एक अंतरराष्ट्रीय संगठन होने के मामले में लगभग अद्वितीय है जिसमें स्थानीय समुदायों को औपचारिक निर्णय लेने की संरचना में शामिल किया गया है। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यह कहने का अधिकार था कि एक छोटे समूह के प्रभुत्व वाली कूटनीति से अच्छे समाधान नहीं निकलेंगे और गहरे अन्याय होंगे। लेकिन अगर भारत, वास्तव में जलवायु कार्रवाई और जलवायु न्याय में “किसी से पीछे नहीं” होना चाहता है, तो इसे उन कई समुदायों को शामिल करने के लिए लड़ने की जरूरत है जो अंतरराष्ट्रीय निर्णय लेने वाले मंचों से बाहर हैं। अन्यथा, “उबाऊ, अर्थहीन, इत्यादि” जैसे शब्दों के रूप में खारिज होने का जोखिम बना रहेगा।

साभार: www.thethirdpole.net



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