कांग्रेस: राहुल ही अंतिम आशा
वेद प्रताप वैदिक
कांग्रेस को 24 साल बाद सोनिया परिवार के बाहर का एक अध्यक्ष मिला है। क्यों मिला है? क्योंकि सोनिया-गांधी परिवार थक चुका था। उसने ही तय किया कि अब कांग्रेस का मुकुट किसी और के सिर पर धर दिया जाए। माँ और बेटे दोनों ने अध्यक्ष बनकर देख लिया। कांग्रेस की ताकत लगातार घटती गई। उसके महत्वपूर्ण नेता उसे छोड़-छोडक़र अन्य पार्टियों में शामिल होते जा रहे हैं।
ऐसे में कुछ नई पहल की जरुरत महसूस की गई। दो विकल्प सूझे। एक तो भारत जोड़ो यात्रा और दूसरा ढूंढें कोई ऐसा कंधा, जिस पर कांग्रेस की बुझी हुई बंदूक रखी जा सके। भारत कहाँ से टूट रहा है, जिसे आप जोडऩे चले हैं? वह वास्तव में टूटती-बिखरती कांग्रेस को जोड़ो यात्रा है। इसमें शक नहीं कि इस यात्रा से राहुल को प्रचार काफी मिल रहा है लेकिन कांग्रेस से टूटे हुए लोगों में से कितने अभी तक जुड़े हैं? कोई भी नहीं।
इसका कारण है, जितेंद्रप्रसाद, जिसके विरुद्ध अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे, वह महिला अपने पांव पर खड़ी थी लेकिन खडग़े तो बैसाखी पर फुदक रहे थे। चुनाव अभियान के दौरान खडग़े ने कई बार यह स्पष्ट कर दिया की वे रबर की मुहर बनने में ही परम प्रसन्न होंगे। थरुर भी खडग़े को चुनौती दे रहे थे और उन्होंने उन्हें टक्कर भी अच्छी दे दी लेकिन दबी जुबान से वे भी स्वामीभक्ति प्रकट करने में नहीं चूक रहे थे।
याने गैर-गांधी अध्यक्ष आ जाने के बावजूद कांग्रेस जहां की तहां खड़ी है और वह ऐसे ही खड़ी रहेगी, ऐसी आशंका है। क्या थरुर के पास कोई नए विचार, नई नीतियां, नई रणनीति, नया कार्यक्रम और नए कार्यकर्त्ता हैं, जो इस अधमरी कांग्रेस में जान फूंक सकें? थरुर में ऐसी किसी क्षमता का परिचय आज तक नहीं मिला। ऐसी स्थिति में यह क्यों नहीं मान लिया जाए कि खडग़े को जो भी आदेश ऊपर से मिलेगा, कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती रहेगी।