असम में बाढ़ से बचाव में मददगार साबित हो सकते हैं पारंपरिक तरीके
बाढ़ के प्रभावों को कम करने के लिए असम के मूल समुदाय कई पारंपरिक तौर-तरीकों को अपनाते रहे हैं। असम में बाढ़ की बढ़ती तीव्रता के बीच इन समाधानों पर चर्चा चल रही है।
रिषभ जैन
असम के सिलचर में रहने वाले हिमांशु पेगू एक राहत शिविर में रहने के लिए मजबूर हो गए थे क्योंकि 20 जून 2022 को उनके शहर में आई एक बाढ़ ने उनका सब कुछ तबाह कर दिया था।
पेगू ने द् थर्ड पोल से बातचीत में कहा, “जैसे ही भारी बारिश शुरू हो गई, मैं तुरंत अपने बच्चों को नजदीकी राहत शिविर में ले गया। अगले दिन, बैग पैक करके और अपने मवेशियों को सुरक्षित स्थान पर ले जाकर, मैं भी अपनी पत्नी के साथ राहत शिविर में चला गया। दो हफ़्ते बाद जब मैं अपने घर लौटा तो मुझे पता चला कि सब कुछ बर्बाद हो चुका है। मेरा घर टूट गया। बर्तन वगैरह सब खो गए। मवेशी बाढ़ में बह गए। अपने जीवनकाल में ऐसी बाढ़ मैंने कभी नहीं देखी।”
असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एएसडीएमए) के मुताबिक इस साल, 30 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। तकरीबन 2,71,000 लोग राहत शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए। असम में पिछले 10-15 सालों में बाढ़ एक वार्षिक आपदा बन गई है, जिससे प्रति वर्ष औसतन लगभग 930,000 हेक्टेयर इलाका प्रभावित होता है। जल संसाधन विभाग के अनुसार, हाल के दिनों में ये बाढ़ और भी घातक हो गए हैं।
असम के गुवाहाटी स्थित एक स्वतंत्र शोधकर्ता मिर्जा जुल्फिकार रहमान का मानना है कि ब्रह्मपुत्र नदी के भूगोल में हस्तक्षेप, विनाशकारी बाढ़ के पीछे का मुख्य कारण है। वह कहते हैं, “समय के साथ अनेक तटबंधों और बांधों के निर्माण हुए लेकिन इससे नदी क्षेत्र में बहुत सारे हस्तक्षेप भी हुए। साथ ही, बाढ़ के मैदान का अध्ययन करने या उसका ठीक से नक्शा बनाने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे नदी के प्राकृतिक प्रवाह में बहुत अधिक व्यवधान आया और इसलिए बहुत अधिक तबाही हुई।”
उन्होंने यह भी कहा कि जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ राजमार्गों, हवाई अड्डों इत्यादि के रूप में बुनियादी ढांचे का बहुत विस्तार हुआ है और बाढ़ की तीव्रता को बढ़ाने में इन सबकी भी बड़ी भूमिका है। असम में बाढ़ के प्रभावों को कम करने के लिए, पिछली सरकारों ने पिछले छह दशकों में तटबंधों के निर्माण पर करीब तीन अरब भारतीय रुपये खर्च किए हैं। बाढ़ के प्रभाव को कम करने के लिए तटबंध बनाने पर काम किया गया। हालांकि तटबंधों के निर्माण की खराब गुणवत्ता या लोगों द्वारा अतिक्रमण किए जाने की प्रवृत्ति के चलते, इस प्रयास से बाढ़ को नियंत्रित करने में बहुत सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है।
अरण्यक के लिए काम करने वाले वैज्ञानिक पार्थ ज्योति दास का मानना है कि वैसे तो तटबंध बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बनाए जाते हैं लेकिन अगर तटबंध को तोड़कर बाढ़ आ जाए तो वह और भी ज्यादा विनाशकारी होती है। हाल ही में सिलचर में आई बाढ़, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमें बेथुकंडी तटबंध के टूटने के बाद शहर की अब तक की सबसे भीषण बाढ़ आई।
उन्होंने यह भी कहा कि प्राकृतिक जल निकासी की कमी के कारण निचले इलाकों में जलभराव हो जाता है। साथ ही, बाढ़ के लिहाज से नाजुक क्षेत्रों में अतिक्रमण, इस समस्या को और बढ़ा देता है।
वह कहते हैं, “नदी के चारों ओर एक निश्चित स्थान है जिसे बफर फ्लडप्लेन के रूप में जाना जाता है। यह स्थान मानसून की बारिश के दौरान भर जाएगा और अगर आप वहां रहते हैं तो निश्चित रूप से इससे प्रभावित होंगे। असम में इन बाढ़ के मैदानों में आबादी का उच्च घनत्व है और जब भी बाढ़ आती है, तो ये लोग राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो जाते हैं।”
जैसे-जैसे बाढ़ अधिक तीव्र होती जाती है, जिससे हर साल मनुष्यों और वन्यजीवों को अधिक नुकसान होता है, नीतिगत उपाय और हस्तक्षेप तेजी से आवश्यक होते जा रहे हैं। रहमान का मानना है कि जब तक इसको लेकर बातचीत नहीं होती है- जरूरी नहीं है कि यह बाढ़ के दौरान ही हो, यह साल भर भी हो सकती है-तब तक हालात सुधरने की उम्मीद नहीं है। उनका यह भी विचार है कि असम में बाढ़ से मुकाबला करने के लिए स्थानीय समुदाय, परंपरागत तौर-तरीके अपनाते हैं, हमें उस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है।
बाढ़ से मुकाबला करने के परंपरागत तरीके
किसानों के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था अखिल भारतीय किसान महासभा के असिस्टेंट सेक्रेट्री प्रणब डोले कहते हैं कि पूरे असम में यहां के मूल निवासी, आदिवासी समुदायों ने जनसांख्यिकी और जलवायु परिस्थितियों के साथ जीवन का एक विशेष तरीका विकसित किया है। वह देवरी या मिसिंग जैसे समुदायों द्वारा बनाए गए बांस के घरों की वास्तुकला यानी आर्किटेक्चर पर प्रकाश डालते हैं।
ये घर उभरे हुए बांस के स्टिल्ट्स पर बने हैं, और कंक्रीट के घरों के विपरीत ये घर बाढ़ रोधी घर होते हैं। इस तरह के घर पानी के प्रवाह में बाधा नहीं डालते जबकि कंक्रीट वाले घर पानी के प्रवाह को बाधित करते हैं। इन समुदायों के सदस्य घर के बगल में नाव भी रखते हैं, ताकि अत्यधिक बाढ़ की स्थिति में परिवार सुरक्षित स्थान पर जा सके। इन पारंपरिक घरों के प्रकारों को चांग घर के रूप में जाना जाता है। ये मूल रूप से एक प्लेटफॉर्म पर बने हुए लंबे घर होते हैं। इस तरह के घरों को बनाना आसान है क्योंकि इनके निर्माण में प्रयुक्त होने वाले बांस इन क्षेत्रों में पाया जाता है।
बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने के एक अन्य पारंपरिक तरीके के रूप में, डोले यह भी बताते हैं कि कैसे पारंपरिक मानव निर्मित टीले, जिन्हें कासो पिठिया के नाम से जाना जाता है, का उपयोग जलभराव की समस्या को हल करने के लिए किया जाता है। ये टीले आम तौर पर एक अर्ध-वृत्त के आकार में बने होते हैं, जैसे बाढ़ के पानी से ऊपर उठने वाले कछुए का खोल।
बाढ़ के दौरान, अस्थायी रूप से पानी में डूबी हुई भूमि जलभराव हो सकती है, जो तब होता है जब मिट्टी पानी से पूरी तरह से संतृप्त हो जाती है जो कि बहने में असमर्थ होती है। कासो पिठिया के ऊपर घर बनाने से बाढ़ के पानी की नींव कमजोर होने से बच जाती है, क्योंकि वे पानी से ऊपर उठ जाते हैं और जलभराव नहीं होगा। यह गंदगी और गाद की समस्या को भी हल करता है जो बाढ़ के कम होने पर पीछे रह जाती है। कई समुदाय वन्यजीवों की रक्षा के लिए इन “हाईलैंड्स” का निर्माण भी करते हैं, क्योंकि जानवर बाढ़ के दौरान जल स्तर से ऊपर उठने वाले मिट्टी के टीलों पर शरण ले सकते हैं।
सांस्कृतिक चुनौतियां भी हैं
दास का कहना है कि इतने बड़े पैमाने पर चांग घरों को बनाने में सांस्कृतिक चुनौतियां हैं। चूंकि चांग घर ज्यादातर मिसिंग द्वारा बनाए गए हैं, “कुछ सांस्कृतिक वर्जनाएं या मानदंड शामिल हैं”, क्योंकि कुछ समुदाय एक ऐसी आवास तकनीक को लागू नहीं करना चाहते हैं जो एक अलग समूह के साथ इतनी मजबूती से जुड़ी हो। भारतीय संविधान के तहत मिसिंग को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है, जो सामाजिक-आर्थिक हाशिए के इतिहास को दर्शाता है। अधिक विशेषाधिकार प्राप्त समुदाय उन प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रतिरोधी हो सकते हैं, जिन्हें उन्होंने ऐतिहासिक रूप से नीचा दिखाया है।
दास कहते हैं, “अब बाढ़ की बढ़ती तीव्रता के साथ विभिन्न समुदायों और जनजातियों के लोगों ने ऊंचे चबूतरों पर घर बनाना शुरू कर दिया है। अब आप पाएंगे कि कई सरकारी आवास भी उस शैली में बन रहे हैं। ग्राउन्ड फ्लोर खाली होते हैं और पहली मंजिल पर आपको कमरे दिखाई देंगे।”
अब बाढ़ की बढ़ती तीव्रता के साथ विभिन्न समुदायों और ट्राइब के लोगों ने ऊंचे चबूतरों पर घर बनाना शुरू कर दिया है।
पार्थ ज्योति दास, अरण्यक
दास का मानना है कि असम सरकार को सब्सिडी वाली एक आवास नीति, विशेषकर बाढ़ प्रभावित इलाकों में, लागू करना चाहिए। इससे, ऊंचे प्लैटफ़ॉर्म वाले घरों के निर्माण को बढ़ावा मिलेगा और बाढ़ से बचाव भी हो सकेगा। लेकिन यह एक अलग समस्या पैदा कर सकता है: चांग घरों में, ग्राउन्ड फ्लोर, और कभी-कभी पहली मंजिल को भी खाली रखा जाता है। उच्च जनसंख्या घनत्व और सीमित भूमि वाले क्षेत्रों में ऐसे घर बनाना संभव नहीं है।
इसके अलावा, जानवरों के लिए, विशेष रूप से काजीरंगा नेशनल पार्क के आसपास के इलाकों में, हाईलैंड्स यानी उच्च भूमि क्षेत्रों को विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि बाढ़ के वक़्त जानवरों को मदद मिल सके। हाल की बाढ़ में पार्क का लगभग 18 फीसदी हिस्सा जलमग्न हो गया था। हालांकि वर्तमान में पार्क में 144 मानव निर्मित हाइलैंड्स हैं लेकिन बाढ़ की बढ़ती आवृत्ति के साथ और अधिक स्थायी समाधानों की तलाश आवश्यक है। मिर्जा का कहना है कि यह एक गलत धारणा है कि बाढ़ से लड़ने के लिए पारंपरिक ज्ञान प्रणाली को बढ़ाया नहीं जा सकता। हालांकि, जिस तरह से सरकार की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि बाढ़ को रोकने के लिए ये प्रयास भी अपर्याप्त हैं।
साभारः दथर्डपोलडाटनेट