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सीबीआई और एफबीआई सिर्फ दिखाने के लिए ‘स्वतंत्र’

ओमप्रकाश मेहता
आज देश की प्रमुख जांच एजेंसियाँँ केंद्रीय जांच ब्यूरों (सीबीआई) और वित्तीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) सहित रक्षा इकाईयों पर यह एक सामान्य आरोप लगाा जा रहा है, ये सिर्फ दिखाने के लिए स्वतंत्र’ है, जबकि इन पर पूरा नियंत्रण सरकार का है, इसीलिए यह सामान्य आरोप लगाया जाता है कि सरकारी वित्तीय घपलों की जांच निष्पक्षता के दायरें से बाहर ही रहती है, अब आज का मुख्य सवाल यह है कि इन प्रतिष्ठानों के नाम को स्वतंत्र’ के साथ जोड़ा गया है, तो इन्हें स्वतंत्रता’ व न्यायपूर्ण काम क्यों नही करने दिया जाता।

पिछले दिनों दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरिवंद केजरीवाल की शराब काण्ड में जमानत पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो सरकारी जांच एजेंसियों को लेकर सख्त टिप्पणियां की, उन पर सरकार ने चाहे गौर न किया हो, किंतु देश के हर जागरूक और बुद्धिजीवी नागरिक ने काफी गंभीरता से लेकर उस पर मनन भी किया है और सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों को आज की सच्चाई से जोड़ा है।

आज की एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि आज देश को प्रजातंत्र के तीन अंगों में से सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका पर ही भरोसा शेष रहा है, विधायिका व कार्यपालिका के साथ ही चौथे कथित अंग खबर पालिका पर भी भरोसा शेष नही रहा। अब चूंकि पूरे देश को न्याय पालिका पर ही भरोसा रहा है और न्याय पालिका भी इस भरोसे को कायम रखने में जुटी है, तो फिर इन तथाकथित जांच एजेंसियों को सरकारी नियंत्रण से बाहर क्यों नही लाया जा रहा?

यहाँँ यह भी कटु सत्य है कि सरकार के अधिकांश दुष्कर्म’ के मामलों की जांच का उत्तरदायित्व भी इन्हीं जांच एजेंसियों को सौंपा जाता है, जिन पर केन्द्र या राज्य में विराजित उन राजनेताओं का नियंत्रण रहता है जो स्वयं इन दुष्कर्मों’ के सहभागी होते है, अब ऐसी स्थिति में तथाकथित इन स्वतंत्र जांच एजेंसियों से सही न्यायपूर्ण व संवैधानिक जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है, यही मुख्य कारण है कि प्रजातंत्र के किसी भी अंग को सही व उचित न्याय नही मिल पाता और देश के आम नागरिक की खून-पसीनें की कमाई का अधिकांश पैसा इन कथित भ्रष्ट सत्ताधीशों की जेबों में चला जाता है, यही मुख्य कारण है कि आज के युवा वर्ग में राजनीति के प्रति रूझान बढ़ता जा रहा है।

इसलिए आज की सबसे अहम् और पहली जरूरत इन सरकारी जांच एजेंसियों को सरकार के नियंत्रण से बाहर करने की है और इसके लिए तथाकथित रूप से ईमानदार प्रधानमंत्री को ही संसद में संविधान संशोधन प्रस्तुत कर इन स्वतंत्र’ एजेंसियों पर से अपना नियंत्रण हटाना पड़ेगा। खासकर केंन्द्रीय गृहमंत्री से तो ऐसी अपेक्षा की ही जा सकती है? क्योंकि आज इन एजेंसियों की स्वायतता को लेकर हर तरफ से कई सवाल खड़े किए जा रहे है।

क्या ही अच्छा हो, यदि मोदी सरकार इन स्वतंत्र जांच एजेंसियों की अब तक की भूमिकाओं, उनकी कार्यशैली व उनकी मजबूरियों की निष्पक्ष समीक्षा कर संसद के माध्यम से इन्हें और अधिक सक्षम व विश्वसनीय बनाने की दिशा में अहम् भूमिका का निर्वहन करें? क्योंकि आज इन जांच एजेंसियों में भी अमले की कमी से लेकर अन्य कई समस्याऐं है, जिनके कारण ये एजेसिंया त्वरित न्याय नही दे पा रही है। इसलिए इनका हर तरीके से पूर्णरूपेण न्यायोचित निरीक्षण कर इनके सुधार की दिशा में पहल की जानी चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि इन एजेंसियों पर कितने और कितनी लम्बी अवधि के लम्बित मामले पेंडिंग है और इनका न्यायपूर्ण निपटारा कैसे व कितनी कम समयावधि में हो सकता है? यदि केन्द्र सरकार व प्रधानमंत्री व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर इस देशहित के कार्य को सम्पन्न करें, तो उनकी लोकप्रियता में अभिवृद्धि ही होगी।